बदल रहे हैं आजकल पिता भी / अरुणिमा अरुण कमल
भूमिकाएँ बदल रही हैं पिता की,
बदल रहे हैं आजकल पिता भी !
गोद में लिए फिरते हैं छोटी-सी जान को,
जैसे समेट रखा हो पूरे आसमान को,
बच्चों का हाथ थाम टहलते हैं हौले-हौले,
मजाल है किसी बच्चे को
पिता की गोद से कोई ले ले;
खिलाते-नहलाते हैं,
कहानियाँ सुना-सुना नानी बन बहलाते हैं;
कूद जाते हैं बच्चे भी माता की गोद से
पिता की ओर बाहें फ़ैलाए,
सवाल नहीं कि उनके माथे पर
कभी एक शिकन भी आ जाए,
डाँटती है मम्मी तो
पिता के पीछे छिप जाते हैं,
ऑफिस से लौटकर थके हारे पिता भी
आकर बच्चों में लिपट जाते हैं,
बच्चों का उदास चेहरा उन्हें नहीं भाता है ,
टेबल पर रखा न्यूज़ पेपर मुँह ताकता रह जाता है,
लैपटॉप पर खुला ऑफिस का पेंडिंग असाइनमेंट
मुँह बाए खड़ा है,
बॉस का हर आदेश
स्विच्ड ऑफ मोबाइल में रखा है;
और पिता कंधे पर बिटिया को डाले लोरी गा रहा है,
उधर बेटा अपनी बारी की प्रतीक्षा में धीरज खो रहा है,
आज के सभी पिता को
पिता के साथ माँ भी बनना पड़ता है
न शब्दों की कठोरता, न वाणी में ज्वाला दिखाई देती है
अब पिता के हर पक्ष में माँ की सुकोमलता दिखाई देती है!
नौ महीने गर्भ में रख माँ ने भूमिका निभा ली है,
पिता को आजीवन अपनी भूमिका निभानी है,
यह नाभ का नहीं, ना सही
दिल के रिश्ते की कहानी है!