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बदशक़्ल / यानिस रित्सोस / विनोद दास

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इस स्त्री के तमाम खूबसूरत प्रेमी रहे हैं । वह ऊब चुकी है । वह अपने केश नहीं रँगती । वह अपने मुँह के इर्द-गिर्द के रोंयें ट्वीज़र से एक-एक करके नहीं निकालती ।

वह दोपहर बारह बजे तक बड़े बिस्तर में पड़ी रहती है।

वह अपने नकली दाँत तकिये के नीचे छिपाए रखती है ।

पुरुष एक कमरे से दूसरे कमरे के बीच निर्वस्त्र घूमते रहते हैं । वे अक्सर बाथरूम जाते हैं, एहतियात से नल बन्द करते हैं । वे उस ख़ामोश, घिनोने के क़रीब से गुज़रते हुए, अनायास सेण्ट्रल टेबल पर रखे फूलों को सीधा रखते हैं जहाँ अब कोई तनाव नहीं, न है कोई अधीरता या धृष्टता — हालाँकि तनाव सबसे आसानी से केवल उसके धीरे-धीरे मरने के बीच किसी तरह देखा जा सकता है । उनके भारी भरकम शरीर में बाल कम हो गए हैं, सूख गए हैं, सफ़ेद हो गए हैं । लेटी हुई वह स्त्री अपनी आँखें बन्द किए हुए है ताकि बिवाइयों से भरा अपना भद्दा अँगूठा देख न सके । यह बदशक़्ल — एक ज़माने में कामोत्तेजक स्त्री रही है । अब उसके पास इतनी भी ताक़त नहीं है कि वह अपने मन मुताबिक़ अपनी आँखें भी बन्द कर सके।

थुलथुल, अपनी चरबी में धँसी, ढीली-ढाली ।

क्रान्ति के कुछ साल बाद की कविता की तरह ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : विनोद दास