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बदसूरत लड़की / एम० के० मधु

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बदसूरत लड़की
बसंत की अमराई हवाओं पर
न गदराती है, न मदमाती है
आषाढ़ की पहली बूंद पर
न आह्लादित होती है, न गुनगुनाती है

बदसूरत लड़की
कोयल के कूकने पर
न इठलाती है, न इतराती है
बस चुप रहती है
गांव किनारे नदी में पैर लटकाये
पानी में बन रहे अपने बिंबों को
तोड़ती रहती है

बदसूरत लड़की
सपने नहीं देखती
जागी आंखों से कुहासा ओढ़ती है
सोई आंखों से अंधेरा नापती है
बदसूरत लड़की
बीते हुए कल की सीकियों से
आनेवाले कल की
हज़ार छेदों वाली
चुन्नी बुनती है

आंगन में दूसरों के लिए
सतरंगी अल्पना बनाती है
दरवाज़े पर
झालर, बंदनवार सजाती है

बदसूरत लड़की
आईने के सामने खड़ी
बिंदी लगाती है
लेकिन टूटता है बार-बार
उसके भीतर का शीशा

बदसूरत लड़की
फूल नहीं तोड़ती
माला नहीं गूंथती
गजरा नहीं लगाती अपने बालों में
किंतु पौधे की जड़ों में
पानी रोज डालती है

बदसूरत लड़की
इंद्रधनुष नहीं बनती
दसों दिशाओं में खूबसूरत ग़ज़ल बन
नहीं फैलती

वह तो बस तबले की ताल को
ठीक करने वाली
हथौड़े की चोट भर होती है
बदसूरत लड़की
जंगल प्रदेशों में डायन बताकर
मार दी जाती है
और सभ्य प्रदेशों में
दहेज की वेदी पर डाल दी जाती है

बदसूरत लड़की
मरियम नहीं होती
सीता भी नहीं होती
श्रीदेवी, माधुरी दीक्षित भी नहीं होती

बदसूरत लड़की
सिर्फ़ बदसूरत लड़की होती है।

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