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बद नसीबी में हों आहें बा-असर मुमकिन नहीं / रतन पंडोरवी

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बद नसीबी में हों आहें बा-असर मुमकिन नहीं
बारवर दौरे-ख़जां में हो शजर मुमकिन नहीं

अक़्ल कहती है हसीनों से हज़र करते रहो
दिल ये कहता है हसीनों से हज़र मुमकिन नहीं

जब मुक़द्दर में लिखी हों हसरतें ही हसरतें
हो सके तदवीर कोई कारगर मुमकिन नहीं

अहले-ज़र के घर में ग़म हंसता हुआ पाता हूँ मैं
हंसती हो लेकिन खुशी बे-ज़र के घर मुमकिन नहीं

जब बशर के लफ्ज़ ही में है शरारत का वुजूद
ऐसे में फिर शर से ख़ाली हो बशर मुमकिन नहीं

हुस्न से घायल न हो जो हुस्न पर माइल न हो
ऐसा दिल मुमकिन नहीं ऐसी नज़र मुमकिन नहीं

जब हो कामिल ज़ौके-दिल ज़ौके-नज़र ज़ौके-तलब
पर्दे से बाहर न हो वो जलवागर मुमकिन नहीं

अपनी पूंजी फूल हंस हंस कर लुटाते हैं 'रतन'
इस तरह कोई लुटाये गंजे-ज़र मुमकिन नहीं।