बनारस में कोई एक प्रार्थना नहीं होती
यहां हर दीवार, हर घाट, हर छत,
हर स्त्री, हर बाबा, हर अघोरी, हर लंगड़ा कुत्ता भी
प्रार्थना की एक अलग भाषा जानता है ।
कभी घंटों की गूंज में,
कभी ठहरी हुई ख़ामोशी में,
तो कभी भस्म लिपटे बदन की गंध में
बनारस की प्रार्थनाएं
बोलती नहीं - महसूस होती हैं ।
प्रार्थना में कोई मांग नहीं होती,
मुक्ति मांगना भी यहां एक भूल है,
क्योंकि बनारस सिखाता है
"जो है, वही पर्याप्त है।"
मणिकर्णिका की ज्वाला से उठती राख भी
एक प्रार्थना है
जिसमें आत्मा अंतिम बार कहती है,
"अब सब कुछ छोड़ दिया… मुझे स्वयं से मिलवा दो।"
गंगा की धाराएं जब चुपचाप बहती हैं,
तो वे कोई मंत्र नहीं पढ़ रही होती हैं,
वो केवल सुनती हैं,
हर आत्मा की दबी हुई पुकार ।
कोई वृद्ध तुलसी की छाया में बैठा बुदबुदाता है
“राम राम…”
वो शब्द नहीं हैं
बल्कि प्रार्थना की सांसें हैं ।
कोई स्त्री,
जो सब कुछ खोकर,
बिना कुछ कहे
गंगा में फूल बहा कर लौट जाती है ...
उस मौन में भी बनारस
एक करुणा भरी प्रार्थना पढ़ लेता है ।
बनारस की प्रार्थनाएं
शब्दों में नहीं बसतीं
वे धूप, राख, हँसी, आंखों
और जल में बहती हैं ।
एक दिन,
जब सब थक जाते हैं बोलने से,
तब बनारस कहता है -
"अब मेरी प्रार्थनाएं तुम्हारे लिए बोलेंगी।"