बनारस हो जाती हूँ / शैलजा पाठक
एक शब्द विछोह
पहली बार मन रोया था
जब अपने प्रायमरी स्कूल को
अलविदा कहा
पिछले डेस्क पर छूट गया
पुराना बस्ता
गुम गो गया वो अंडे के आकार
वाला स्टील का टिफिन
जिसमे अम्मा ठूस के रखा करती थी पूरी अचार
तमाम रंगबिरंगी पेंसिल का खोना पाना
महकने वाले रबर में सबकी हिस्सेदारी
उस आखिरी दिन डैनी सर ने
मेरे गाल को थपथपा के चूम लिया
वापस दिए मेरे घुंघरू यह कह कर
कि डांस सिखती रहना
अतीत के खुबसूरत यादों के
दरवाजे पर टंगा है घुंघरू
जब भी यादें अन्दर आती है
सब छम छम सा हो जाता है
बड़े और समझदार होने के क्रम में
हम लगातार बिछड़ते रहे
स्कूल कॉलेज दोस्त
फिर वो आँगन भाई का साथ
पिता की विराट छाती से चिपक कर
वो सबसे दुलारे पल
और आखिर में हमेशा के लिए
बिछड़ गई अम्मा
बेगाना हो गया शहर
राजघाट के पुल से गुजरती ट्रेन
डूबती गंगा... शीतला माता के
माथे का बड़ा टिका सारे घाट मुहल्ला
विश्वनाथ मंदिर का गुम्बद सब बिछड़ गया
अब रचती हूँ यादों की महकती मेहंदी अपने हाथो में
चूमती हूँ अपना शहर...
और बनारस हो जाती हूँ ...