भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बन्द रखी है ज़ुबान हमने लिफ़ाफ़ों की तरह। / रंजीता सिंह फ़लक
Kavita Kosh से
बन्द रखी है ज़ुबान हमने लिफ़ाफ़ों की तरह ।
बोलती हैं मगर आँखें किताबों की तरह ।
वो तो बस देख के मुझको चला जाता है मगर
सुर्ख़ हो जाती हूँ मैं जैसे गुलाबों की तरह ।
उससे मिलना भी कहाँ मुमकिन हो पाता है मेरा
पेश आती हैं हज़ार रस्में हिजाबों की तरह ।
किसने देखा है मोहब्बत में सुकूँ का कोई पल
हरेक लम्हा है यहाँ जैसे अजाबों की तरह ।
ज़िन्दगी इतना उलझा दिया है तूने मुझे
बीती जाती है मेरी उम्र हिसाबों की तरह ।
उसको माना है ख़ुदा उसकी अकीदत की है
इश्क़ मेरा है जैसे की नमाजों की तरह ।