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बन्धन-मुक्त / महेन्द्र भटनागर

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बन्धन से तुमको प्यार न हो !
बंदी शत-शत बन्धन में यह उगता अभिनव संसार न हो!
बन्धन से तुमको प्यार न हो!

युग के सैनिक हो, क्रांति करो, नवयुगकी बढ़कर सृष्टि करो,
मानवता के संताप-क्लेश, पीड़ा, अभाव सब शीघ्र हरो,
बलिदानों की बलिवेदी पर
डरना तुमको स्वीकार न हो!
 
अगणित मानव सैनिक बन कर आर्थिक हमले में कूद पड़ो,
प्राणों का रक्त बहाने को युग-कवि ! गौरव का गान पढ़ो,
नूतन दुनिया में क्षणभर भी
जनजन का जीवन भार न हो!

फिर महाप्रलय के गर्जन से वसुधा का अंतर कंपित हो,
पूँजी की ज़ंजीरों में बँध अब और न जनता शोषित हो,
समता की दृढ़ तलवारों से
वैभव पर बंद प्रहार न हो !

यह दो-युग का संधिस्थल है संघर्ष छिडे़गा वर्गों का,
सामाजिक-दर्शन बदलेगा, क्षय होगा स्थापित ‘स्वर्गों’ का,
दुःख कहीं तो एक ओर सुख
का बहता पारावार न हो !

1945