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बन्न खिड़कीक ओहि पार / मनोज शांडिल्य

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आइ कतेको दिनक बाद
फोलैत छी बेडरूमक पुबरिया खिड़की
तीतल पुरिबाक संग पैसैत अछि नस-नस मे
वएह पुरनका सुच्चा जिनगीक आभास
लेबय लगैत छी पुनि साँस..

हठात् पड़ैत अछि नजरि
सड़कक कातक फुटपाथ पर
टिनही बाटी लेने बैसल ओहि बुढ़िया पर
ई औखन बैसैत अछि एतय!
अर्थात, एकर प्राण औखन गछारने छैक एकरा..

ओहि समय मे
जहिया सदिखन फूजल रहैत छल ई खिड़की
एकटा फटलाही पँचटकही दैत पुछने रहियै –
एना कते दिन चलतौ गे बुढ़िया?
दीर्घ-श्वास लैत बुदबुदायल रहय ओ –
ने जानि बौआ
की भेटैत छैक एहि जरलाहा प्राणकेँ हमरा मे
किए खुटेसल अछि एतय औखन
मुदा आब नहि रखबै
बइला देबै आब!

देखै छियै –
बुढ़िया भ’ गेल अछि आर कमजोर
नहि चलैत हेतै अपनहु पर जूति
कोना क’ बइलेतै ककरो!
प्राण जकड़ने छैक ओकरा कसि क’
दुखाइतो हेतै बचल-खुचल देह सगरे
नहि जानि कहिया भेटतै मुक्ति..

मोन होइए बन्न क’ ली फेर सँ ई खिड़की
हमरा भ’ रहल अछि ड’र
कहूँ तोड़ि क’ खुट्टा बुढ़ियाक प्राण
पैसि ने जाय हमरहि मे
बसि ने जाय हमरहि मे..

सुच्चा जिनगीक आभास सँ
घुरि अबैत छी पुनि अपन आभासी जिनगी मे
पुबरिया खिड़की क’ लैत छी बन्न
शीशा सभकेँ रांगि दैत छियै फेर सँ
गढ़गर कारी रंग सँ
नुका रहैत छी फेर ओही पहिचनाल अन्हार मे..

बन्न खिड़कीक ओहि पार भने जे होइत होइक
एहि पार पुनः सुभ्यस्त भ’ जाइत छी हम!