बन-फूल / नरेन्द्र शर्मा
कहीं सरिता के किनारे खिला था बनफूल एक,
अचक उसके पास आई लहर ज्यों भावातिरेक!
वायु डोली, लहर उभरी, फूल झूला, मिले ओठ,
फूल भूला चेत, लहरी गई कर मधुराभिषेक!
बहुत-सी आईं गईं लहरें, न आई वही एक—
ले गई जो फूल की मुस्कान, अंतर का विवेक!
उलहना देता रहा बनफूल—’तुम आईं नहीं!’
गीत गाता रहा, देती रही मंथर वायु टेक!
नदी बहती, समय जाता, आस भी जाती रही,
विवश हो बनफूल ने यह बात सरिता से कही,
’ले चलो मुझको, जहाँ वह लहर ठहरी बाट में।’
चाँद निकला, हँसी सरिता, निरुत्तर बहती गई!
फिर वहाँ आई चटुल चिड़िया बनी से, वारि देख,
तीर पर बैठी, सिमट ज्यों गई नभ की स्वर्ण-रेख!
फूल को देखा, सुनहली चोंच में ले कर कहा,
’पिया जल दो चोंच, सरि, जो—दे रही हूँ मोल देख!’
फूल धारा में रहा बह, कह रहा है बार बार—
’वह लहर किस महल बसती? कब खुलेंगें बंद द्वार?’
सूर्य चढ़ आया, नदी हँसती रही ज्यों दिवास्वप्न,
फूल बहता रहा, कहता रहा—’बोलो, क्षिप्र धार!’
एक दिन बोली नदी—’मैं तो समय की धार हूँ,
मैं विरह का अश्रु हूँ, मधुमिलन-लोचन चार हूँ,
लहर मेरा अंश, ओ बनफूल! मत यह भेद भूल—
छू गया संकेत जिसका, मैं वही मझधार हूँ!’
कहीं सरिता के किनारे खिला था बनफूल एक,
अचक उसके पास आई लहर ज्यों भावातिरेक!
वायु डोली, लहर उभरी, फूल झूला, मिले ओठ,
फूल भूला चेत, लहरी गई कर मधुराभिषेक!