बम मिला / मनोज श्रीवास्तव
    बम मिला      
कनाट प्लेस के 
किसी कूड़ेदान से 
एक ज़िंदा बम मिला,
हड़कंप नाम की चिड़िया 
फड़फड़ा उठी
जे.जे.कालोनी से संसद तक, 
सारे कौम का मिजाज़ 
फिर, हो गया गरम,
जलने  लगा देश-भक्ति का बड़वानल 
वीआइपियों के आरामगाह से, 
जिनकी मुस्तैद हिफाज़त होती रहेगी
जब तक नहीं मिल जाएगा 
मीडिया को कोई और चटक मसाला,
किसी सियासी क़वायद से 
उतर जाएगा
बम का भूत,
किसी लहकती फ़िल्मी रोमांस की आंच से 
 
पिघल नहीं जाएगा
अफवाहों का आइसलैंड 
पर, बम मिलाने की कहानी
यूं ही सार्थक नहीं हो जाती,
दहशत का जंगल
गूंजने लगता है,
झाड़ियों में प्रेमालापरत जोड़े 
सिहर उठाते हैं 
अपने सायों के
घातक हो जाने के भय से,
भांय-भांय करने लगती हैं
चिहुंकती दीवारें 
जब सायरन दहाड़ती जीपें 
धूप चीरती हुई फड़फड़ा देती हैं 
दाने चुगते कबूतरों को
जो राजप्रासादों के आंग्ल गुम्बदों पर
पंख मारते  हैं   
अमन का  परचम  लहराने  
की  गुस्ताखी  करते  हैं.
	
	