बयान-ए-दर्द-ए-दिल का भी हुनर ख़ुद में नहीं पाता / रविकांत अनमोल
बयान-ए-दर्द-ए-दिल का भी हुनर ख़ुद में नहीं पाता
मगर कुछ दर्द ऐसा है रहा मुझसे नहीं जाता
सिवाए रंजो ग़म क्या है हमारी ज़िन्दगानी भी
तुम्हारा ग़म मगर हमदम सहा हमसे नहीं जाता
निगलती जा रही है रफ़्ता-रफ़्ता मेरी हस्ती को
ये दुनिया है कि दलदल है समझ मे कुछ नहीं आता
जो मेरी ज़िन्दगी में एक पल को भी नहीं आया
नहीं जाता मिरी आँखों से वो चिह्रा नहीं जाता
पुरानी बात है जब महफ़िलें लगती थीं यारों की
अब अपने आप से भी मुद्दतों मैं मिल नहीं पाता
नज़र भर देख कर उनको नज़र पथरा गई ऐसे
नज़र जब वो नहीं आते नज़र कुछ भी नहीं आता
तिरी आँखों में सौ मंज़र मुझे अनमोल दिखते हैं
मिरी आँखों में क्या तुझको नज़र कुछ भी नहीं आता