बयान-ए-हुस्न-ओ-शबाब होगा / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

बयान-ए-हुस्न-ओ-शबाब होगा
तो फिर न क्यों इज़्तिराब होगा?

ख़बर न थी अपनी जुस्तजू में
हिजाब-अन्दर-हिजाब होगा!

कहा करे मुझको लाख दुनिया
सुकूत मेरा जवाब होगा

किसे ख़बर थी दम-ए-शिकायत
वो इस तरह आब-आब होगा?

मैं ख़ुद में रह रह के झाँकता हूँ
‘कभी तो वो बे-नका़ब होगा!

किताब-ए-हस्ती पलट के देखो
कहीं ख़ु्दी का भी बाब होगा

न मुँह से बोलो, न सर से खेलो
अब और क्या इन्क़लाब होगा?

करम तिरा बे-करां अगर है
मिरा गुनह बे-हिसाब होगा

वफ़ा की उम्मीद और उन से?
सराब आख़िर सराब होगा!

खड़ा हूँ दर पे तिरे सवाली
ये ज़र्रा कब आफ़्ताब होगा?

रह-ए-मुहब्बत में जाने कब तक
अदा-ख़िराज-ए-शबाब होगा


हयात-ए-पेचां की उलझनों में
छुपा कहीं मेरा ख़्वाब होगा

रहा अगर हाल यूँ ही ‘सरवर’
तो हश्र मेरा ख़राब होगा!

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