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बयान / रणजीत

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यह कौन सी बला लग गयी है
मेरे देश के पीछे
गरीबी और भुखमरी तो पहले से ही थीं
अब तक भी हो ही रहा था
दलितों-आदिवासियों-अल्पसंख्यकों पर अत्याचार
बस कमी थी तो इस नये डेंगू की
जिसने पिछले सोलह महीनों में
इतनी बढ़ा ली है अपनी नस्ल
कि चारों तरफ सुनायी पड़ रही है
इसी की भूँ-भूँ।

वाह रे इन्सान !
तुम जानवरों तक को देखने लगे हो
अपनी रंगभेदी नज़र से
भैंसों के मांस का वैश्विक व्यापार तुम्हारा
फूल फल रहा है बेरोकटोक
पर पूरे देश में तुम वर्जित कर देना चाहते हो
गाय का मांस।
गोरी चमड़ी की गुलामी
तुम्हें यहाँ तक खींच लायी।
जिसे युगों तक खाते रहे तुम्हारे पुरखे
उस पर अखिल भारतीय प्रतिबंध लगाना चाहते हो तुम
क्या सिर्फ इसलिए कि उसे पसन्द करते हैं वे लोग
जिन्हें तुम मलेच्छ मानते हो
और सिर्फ दूसरी श्रेणी का नागरिक
बना कर रखना चाहते हो, अपने देश में।
और जिसका मुर्दा मांस खाने के लिए
मजबूर हैं युगों से, सस्ते प्रोटीन के कारण
वे लोग
जिन्हें भंगी-चमार बना कर रक्खा है तुमने
अपनी कॉलोनियों से बाहर की गंदी बस्तियों में।

जो अपने फ्रिज में रक्खे गाय का मांस
सरेआम पीट पीट कर उधेड़ लो
उस इन्सान का मांस।
मारो उसे
जो भी तुम्हारी धार्मिक भावनाओं को आहत करे
चाहे वह दाभोलकर हो या कलबुर्गी
सुकरात, मंसूर या चार्वाक
ब्रूनो या गेलोलियो
अब तो तुम्हारे ही सैंया हैं कोतवाल।

लड़ो, लड़ते रहो मेरे देश के
कुछ-कुछ भले/ कुछ-कुछ अच्छे लोगों।
लड़ो एक-दूसरे के खिलाफ़ चुनाव
काटते रहो एक-दूसरे के वोट
और देखते रहो
देश को जहन्नुम में जाते हुए
कभी मत लड़ो चुनाव की इस प्रणाली के खिलाफ़
विजयी घोषित कर दिया जाता है जिसमें
कुल के दस फीसदी वोट पाने वाला भी।

आशा की किरन दिखाई दी थी एक
अरविन्द केजरीवाल
पर उस ‘छोटे आदमी’ ने एकछत्र बनने के चक्कर में
कितनी जल्दी दिखा दिया
अपना टुच्चा प्रॅक्टिकल व्यक्तित्व
अपने सबसे सिद्धान्तनिष्ठ साथियों को
बाहर का रास्ता दिखा कर।

कैसी विडम्बनापूर्ण स्थिति है कि
सबसे बुरे लोग सबसे ज्यादा संगठित हैं
कम बुरे कम संगठित
और अच्छे लोग सबसे कम संगठित।