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बया का घोंसला / प्रमिला वर्मा

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एक दिन चांदनी
अचानक!
खिड़कियों की सलाखों से
अंदर आई।
मेरे बनाए नन्हें वस्त्रों पर,
दृष्टिपात कर
खिलखिलाने लगी।
छोटा-सा टोपा,
मुलायम ऊन का गोला
नन्हे हाथों को समेटता,
वह नन्हा-सा स्वेटर,
पैरों के मोजे़।
क्या पता तुम कौन हो?
मेरे गर्भ में
मेरी कल्पना में
जहाँ
नन्हीं पायलों की रुनझुन थी,
और
बांसुरी की धुन भी थी।
तभी मैंने देखा
 'चांदनी'
कैलेंडर पर चमक रही थी।
छैः महीने शेष थे,
अज्ञात तुम्हें आने में।
चांदनी इठलाई,
लरजी! और चली गई।
मानो उसे सब पता था...
मैं हतप्रभ थी।
सामने 'सच' खड़ा था,
तुम्हें करना होगा गर्भपात,
नहीं कर सकूंगा विवाह,
जाना है मुझे सात समंदर पार।
क्यों सच समझी थीं?
यह तो केवल एक उल्लास था।
 'आल्हादित' होने वाला क्षण था।
क्यों क्षणों को पकड़ती हो?
उल्हास के।
और,
भी क्षण हैं बाकी।
उन्हें जियो,
और
मुझे विदा करो।
ऊन का गोला लुड़का
और
 'सच' से टकराया।
सलाइयों पर बने फंदे गिर चुके थे
और!
उलझ गए आपस में।
एक चीत्कार उभरा, कहीं गहराई से।
किसी नृशंस जीव ने,
तोड़ दिया था "बया का घोंसला"