भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बया / मुकेश प्रत्यूष

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बया परेशान है :
उसके बच्चे
-उसका कहा नहीं मानते चुपचाप

बया चाहती है :
उसके बच्चे सीख जाएं
ठीक उसी की तरह तिनके-तिनके जमाकर
सुंदर-सुंदर घोंसले बुनना

बया चाहती है :
उसके बच्चे सीख जाएं
ठीक उसी की तरह हवा और मौसम का रुख देखना
और, अपने पंखों को तौलना

बया चाहती है :
उसके बच्चे सीख जाएं
ठीक उसी की तरह लम्बी उम्र जीने की हर संभव कोशिश करना

किन्तु, बया के बच्चे उठाते हैं प्रश्न हर सीख पर
चाहते हैं : खिलाफ हवा में भी
उंचे-उंचे उड़ना

बया के बच्चों ने की है आजमाईश
अपनी नई-नई चोंच की - घोंसले की दीवारों पर
जाने-अनजाने कर दिए हैं कई-कई सूराख
उन्हीं से देखते हैं - धूप का निकलना और खिलना
रुक-रुक होती बारिश में
बूंदों का टपा-टप टपकना

बया परेशान है :
उसके घोंसले में भी अब चली आएंगी
सर्द और गर्म हवाएं बेखटके