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बये के घोसले / शिवबहादुर सिंह भदौरिया
Kavita Kosh से
लग गये बबूल पर
नये-बये के घोंसले।
एक-तो बबूल
दूजे ताल के किनारे,
पुरवा दे झकोरे
पछुवा ताना मारे;
देख जाँय
झूमाझाम
जिनके पस्त हौसले।
सवार घन्नई पै-
कोई हाथ है पसारता,
पाल्हरें सिंघाड़े की-
इधर-उधर सँवारता,
देखता है
बार-बार,
गदबदायी कोंपले।
लुके छिपे नहा रही है
बादलों में बिजलियाँ,
ताल में कुमारियाँ
सिरा रही हैं कजलियाँ
उछालती हैं कीच
ये हैं:
मौजी मन के चोंचले।