बरकत / ऋचा दीपक कर्पे
वो शौक नही, ज़रूरत नही,
आदत हुआ करते थे...
घर-आंगन की बरकत हुआ करते थे...
आँगन के बीचोंबीच
पावन तुलसी वृंदावन
जैसे दादी का स्नेह, माँ की ममता
बुआ-चाची का दुलार,
पड़ौस वाली ताईजी का अपनापन...
रसोई से लगी वह नाजुक सुकोमल
मेथी-धनिया-पुदीने की क्यारियाँ
जैसे गूंज उठती हों
घर में नवजात की किलकारियाँ...
अहाते में गेंदा-मोगरा-गुलाब
सेवंती-कन्हेर मुस्काते से
जैसे घर के नन्हे-मुन्ने
खेलते-कूदते-उछलते-गाते से...
वो बेला चमेली-रातरानी की कलियाँ
सीढियों से लिपटी, मुंडेर को छूती
खुशबू बिखेरती महकती सी...
जैसे घर की सुंदर-सलोनी बेटियाँ
खिलखिलाकर हँसती चहकती-सी...
शान से तने खड़े फलों से लदे हुए,
अमरूद-जामुन-सीताफल-आम
जैसे घर के भाई-बेटे कांधो पर लिये
घर की सारी जिम्मेदारी... सारा इंतजाम...
पीपल-नीम-बरगद
तपती गर्मी में शीतल छाया देते
आँगन में मजबूती से पैर जमाए
भीतर तर जड़ें गड़ाए
जैसे बुजुर्गों का आशीष,
तजुर्बा और बलाएँ-दुआएँ...
वो सुख-दुःख की संगत, त्यौहारों की रंगत
खुदा की इबादत हुआ करते थे...
वो शौक नही, ज़रूरत नही...
आदत हुआ करते थे...