बरखा--गीत / मनोज श्रीवास्तव
बरखा--गीत
पंख      पसारे      बदली      रानी,
चुनरी       ओढ़े     श्यामल-धानी;
आंचल-पट  पर   दृश्य   जगत के,
अमित कामिनी छल-छल छलके;
वसन  जो   उघरे   हिय   ललचाए,
ले     अंगड़ाई     सब      अलसाए;
स्निग्ध बदन  को  नज़र  जो छुए,
गड़ी शरम   से    खिल   गए रोएँ;
               फिर   मत   पूछो   कैसे   पिघली,
                       लगी  छलकने,  ज्यों  नभ-बिजली.....
घुमड़े     चहुंदिक     घन    घनघोर,
म्याऊं-म्याऊं     बिदके     वन-मोर;
'पिया-पिया'        पपीहा       गुहारे,
राग       कहरवा      गाएँ       सारे;
कोयल   गाती   कुहकुन   की   धुन, 
दादुर       छेड़े      रेशमी      गुंजन;
ओढ़   लिए   सबने   तन-मन    पर,
झींगुर   के   झुन-झुन   की   चादर;
               ऐसे    में    बूंदों    की    सखियाँ,
                     मल्हारी      बारात       ले       चलीं.....
पेंग      मारती      चहकी     गोरी,
रिम-झिम  प्रीत  की   फैली   डोरी;
गात     चूमने      लपके     बादल,
आँख   मारती    दामिनी    विह्वल;
आवारा       हो       गईं      हवाएं,
आली!    इनको    कौन     मनाए; 
उमर   लांघ   आए   तन-मन  सब,
कौन    बताए    हुए    जवां    कब;
                ऐसे    में     आ-मिल    छलकाएं,
                      कण्ठ-नाद      से     बरखा-कजली......
(रचना-काल: १९-५-१९९५)
 
	
	

