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बरखा और माटी / उमा अर्पिता
Kavita Kosh से
चंचल/शरारती बूँदों ने
अंबर से उतर
हौले-से तपती धरती की
काया को सहला दिया,
तब/धरती की काया से फूट उठी
एक मादक सुगंध!
सुगंध, जो जीवनदायिनी होती है,
जिसे घूँट-घूँट कर पीने को
पीते ही चले जाने को
जी चाहता है...!
थम-थम कर बरसती बूँदें
धरती की तपन को शांत करते हुए
उसमें सुगंध को जन्म देती हैं
और
यही बूँदें अगर रेला बनकर
धरती की देह पर से गुजर जाएँ, तो
धरती महकती नहीं/भीगती है/
रेले के साथ-साथ
बह चलती है/मिट्टी-मिट्टी हुई
पानी की दिशा में...!
मूसलाधार बरसात
मिटा डालना चाहती है
धरती के अस्तित्व को
और अपने अस्तित्व को
मिटा डालना
किसी के लिए भी कष्टकर होता है...!
बरखा और माटी का रिश्ता
तब तक ही खूबसूरत है,
जब तक
वह सीमा में रहे...!