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बरखा / सीमा 'असीम' सक्सेना
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बरखा बादल फुहारें
कितना हसीन मौसम है
हर बार आता है
पर इस बार कुछ अलग है
कुछ पाने का, कुछ खोने का
यह मौसम का तकाजा है
या प्यार का नशा
नहीं जानती
कभी काली घटायें ले आती हैं
मन में उदासी
तो कभी बादलों के बीच से
फूटती किरण
भर जाती हैं
खुशी का उजाला
तन मन चमक उठता है
उस प्रकाश में
धानी चुनर ओढ़
निखर उठती हूँ
सज संवर जाती हूं
इतराती, इठलाती
फुहारों का आनन्द लेती
निकलती हूं
तो एक बिजली की कड़क
डरा जाती है
सहम जाती हूँ
कि कहीं सूर्य को तो कुछ नहीं हुआ
वह सुरक्षित तो है न
बादलों के पीछे
तभी बादलों के सीने को चीरता
अपने अस्तीत्व और तेज के साथ
हॅसता मुस्कुराता माथे को चूमता
आकाश की धाती पर चमक उठता है
अपने पूरे तेज के साथ
गीली धरा की
प्यास को कुछ और बढ़ाने को।