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बरती हुई चीजें / राजेन्द्र उपाध्याय

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मुझे अच्छी लगती हैं वे किताबें
जो कई-कई बार पढ़ी जा चुकी होती हैं
उनमें दोस्तों और दुश्मनों की उंगलियों और अंगूठों की अमिट छाप है
उनमें कामकाजी मजदूरों और जरायमपेशा लोगों के अमिट हस्ताक्षर
उनके पसीने और कोयले की गंध से भरी हुई वे किताबें अजर-अमर

उनके जराजीर्ण पन्नों में
उनकी आत्मा बसी रहती हमेशा
हजारों बरस पुराने कुएँ का मीठा पानी दौड़ता मेरे लहू में
मुझे अच्छे लगते हजारों बार बजाए गए नगाड़े
उन पर थाप देने से मैं डरता नहीं
क्या हुआ कि मेरे गुजरे हुए दादा बजाते थे इन्हें गाहे-बगाहे
पिता का बार-बार पहना कोट
उनके मरने के बाद भी मैं रोज-ब-रोज पहनता

हजारों बार नहाई हुई नदी में
मैं फिर लगाता हॅूं डुबकी
हजारों बार रोंदी गई पगडंडी पर
हजारों साल पुराने पेड़ों की छाया में
फिर चलता हॅूं किसी प्रागैतिहासिक मनुष्य की तरह
हजारों साल पुराने चांद तारों के नीचे लेता नींद

हजारों बार बरती गई रेलों में
मैं फिर-फिर सफ़र करता हॅू
ंहजारों बार बरती गई भाषा में
मैं लिखता हॅूं आज की बेहतरीन कविता

मैं ख़ुद एक बरता हुआ आदमी
ऋतुएँ बरत चुकी मुझे हजारों बार
हजारांे बार भींगा बारिश में
हजारों बरस बूढ़े सूरज की
धूप में लेटी यह मेरी देह
जैसे मेरे पास बरसों से

मैं वह चादर
जो सराय में हर मुसाफिर के काम आती
बार बार बरती जाकर भी नई होती रोज-ब-रोज...

मैं वह कंबल
अस्पताल में जो हर रोगी के काम आता

मैं कोई कोरा कफन नहीं
कि हमेशा मुर्दो पर डालने के काम आऊँ...

मैं एक बरता हुआ आदमी
मेरी औरत बरत चुकी मुझे हज़ार बार

हजारों बार बरता जाकर भी मैं
अभी पुराना नहीं पड़ा...