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बरसाती नदी:(एक स्मृति-व्रत की गाथा) / पूनम चौधरी


हर वर्ष
जब आकाश
अपनी थकी हुई पलकों पर
बादल की राख मलता है —
वह उतरती है...

नदी नहीं,
कोई विस्मृत स्मृति जैसे
धरती की जड़ों से फूटकर
फिर एक बार
अपने खोए हुए उच्चारण को
जल में ढालने चल पड़ती है

उसका बहाव —
न वेग है, न विलंब
वह एक प्राचीन संकल्प-सा
हर सावन
उसी रास्ते लौटती है
जहाँ मिट्टी अब भी
उसके नाम का ऋण लिये बैठी है

वह जल नहीं लाती
लाती है वह चुप्पी
जो रेत की दरारों में
बीज की तरह पली थी —
और अब
बूँद-बूँद
अर्थ बनने लगी है

वह बहती है
जैसे कोई पुराना अभिशाप
अपने आप को धोते हुए
मुक्ति की कोई भाषा रच रहा हो

हर मोड़ पर
वह एक नई असहमति लिखती है —
चट्टानों पर
उखड़े हुए पीपलों की जड़ों में
उस आखिरी कच्चे पुल की दरारों में
जहाँ से कोई लौटकर नहीं आता

कभी वह खेतों को छूती है
जैसे कोई प्रेयसी
लौट आई हो
उस देह की गंध तक
जिसे वह बरसों से भूल नहीं पाई

और फिर
उसी मिट्टी को
एक थकी हुई साँस की तरह
अपने साथ बहा ले जाती है

जैसे प्रेम, जब बँध नहीं पाता
तो बह जाता है —
चुपचाप, निःशब्द, निर्विवाद

उसके भीतर
बहते हैं गाँवों के वे नाम,
जिन्हें अब केवल
सूखे कुओं की साँसें पहचानती हैं —
या वे दहलीज़ें
जिन्होंने कभी अपने ऊपर
पाँवों की छाँव देखी थी

वह बहती है
तो लगता है
जैसे कोई देवी
अपना अकूत वैभव
लुटाकर
फिर अकेली लौटती है
अपने ही भीतर

और जब
सावन समर्पित कर स्वयं को
हो जाता है हल्का
तो नदी भी
किसी अज्ञात लहर की तरह
समाहित होने लगती है
भँवर में

न कोई शोक
न उत्सव —
बस तट पर रह जाते हैं
कुछ पुरानी चूड़ियाँ
कुछ टूटी हुई नावें
अधूरे घोंसले
और
पेड़ की जड़ों में उलझे रिश्ते
और
कुछ क्लान्त पगचिह्न
जिन्हें अगली बरसात
फिर वहाँ ले जाएगी
---

बरसाती नदी —
इतिहास है, स्मृतियों का
अनुष्ठान है व्यथाओं का
जल नहीं, ज्वर है —
जो हर वर्ष लौटता है
उतरने के लिए
संचित पीड़ा और कुंठा
बहा देने को
एक नई आकृति में
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