बरसातें / शमशाद इलाही अंसारी
सफ़ेद, भूरे, हल्के नीले बादल
गहरे होकर
पैठ गये आकाश में
टूट पडी बूंदें
छ्त पर, सडक पर,
भरे बाज़ार में,
संकरी गलियों में।
मोटी-मोटी बूंदें
पीटती हैं वृक्षों को
पर वे हैं बेअसर
झूमते उपहास करते।
परन्तु जब मोटी बूंदें
छोटे-छोटे पौधों को पीटती
देर तक वो काँपते, सिहरते
कोमल फ़ूल बिखर जाते।
दुपक जाते है आदमी
मकानों में, दुकानों में
छजलों के नीचे
पर गली-कूचों में
भर जाती हैं किलकारियाँ
उमड़ कूद पड़ते हैं बच्चे
नगें-अधनंगे
स्कूल से लौटते बालक
टहलते-भीगते बेअसर
या फ़िर भीगता रहता है
अपने ख़ेत में खड़ा
किसान और मज़दूर,
मैला ढो़ता दलित
दूसरी ओर खुल जाती हैं
काली, रंग-बिरंगी छतरियाँ
चढ़ जाते हैं कारों के शीशे
खुल जाती है रिक्शा की छत
ये है बरसात
गरीबों की अलग
अमीरों की अलग।
रचनाकाल : 23.08.1988