भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बरसात को इतवार / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
अब चले आओ निमोही द्वार
पानी थम गया है
मिल गया बरसात को इतवार
पानी थम गया है
साथ इन चंचल हवाओं के
पंख फैला कर दिशाओं के
उड़ न जाए मिलन का त्यौहार
पानी थम गया है
धमनियों में स्नेह के बादल
कर रहे ख़ामोश कोलाहल
पलक पर हैं प्यास के अंगार
पानी थम गया है
धूप गोरी छोड़ कर अम्बर
आ गई छत की मुण्डेरी पर
आइना धर कर रही शृंगार
पानी थम गया है