भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बरसा गीत / अनिल शंकर झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

स्थिति एक बरसा सें पैहनें

कौने हरतै भाय, दुखिया मन के ताप,
कौनें हरतै हो?

मेह पिया परदेशी बनलै, धरती ताकै बाट,
दसो दिशा टकटकी लगैनें, सूनोॅ लागै ठाट,
कौनें हरतै हो?

बेंग डरी धरती तर घुसलै, सब करमोॅ के भोग,
टुभड़ी केॅ धरनेॅ छै कैहनोॅ जब्बड़ पिलिया रोग,
कौनें हरतै हो?

फटलोॅ छै खेतोॅ के छाती, गारी दै बनिहार,
के छुतहर करनें छै सब पर दुरनिवार प्रहार?
कौनें हरतै हो?

दुखिया मन के ताप, कौनें हरतै हो?

स्थिति दू, बरसा होला पर

फिरलै दिन हो भाय, बहुत दिनोॅ पर आय,
परलै दुखिया के संताप,
दिनमा फिरलै हो।

ऐलै बैदा, दवा पिलैलकै, बरसै अमृत धार,
छोटका-बड़का बेंग तनी केॅ ठानै सबसें रार,
दिनमा फिरलै हो।

झिंगुर तानै तान, नसेनस, दौड़लै नपका खून,
हरियैलै दुभड़ी, बरदा भी, जूमै दोनों जून,
दिनमा फिरलै हो।

हुलसी केॅ धरती सजबै छै बीया आरती थाल;
सत् के मेह-पिया बहुरैलै, बिदिया बिजुरी भाल,
दिनमा फिरलै हो।