बरसि पिया के देस / शंकरलाल द्विवेदी
बरसि पिया के देस
घिरि-घिरि, पुनि-पुनि,
ढरि-ढरि अँखियनि,
दै जनि मोहि कलेस।
घन कजरारे!
तू बजमारे!
बरसि पिया के देस।।
मुरझि, पौंछि अँसुवा अँगुरिनि, भरि-
अँजुरी माँहि कपोल।
हमहिं बँधावत धीर, कहे सो-
सालत करुए बोल।।
चितै तनहिं तन, मन लै भागै,
पग-पग पाछैं दीठि।
सर-सर सरकै डोरि डु बु कु डु बु
जल में डूबै डोल।।
संग सहेली हँसैं, ननदिया देति ताहिने तानि।
प्यौ-माइलि छरि देह, सिंगारै, जोगिनियाँ के भेस।।
बरसि पिया के देस।।
परसि थार, धरि सीस घुटुरुअनि,
जागूँ, हेरूँ बाट।
दिअना निरखन हार, भोर लौं-
छूटैं खुले कपाट।।
बरजत हू बढ़ि जात, धार लौं-
निगुरे लूले प्रान!
तिनुका ह्वै बहि चलैं, दरस की-
लहरि उतारै घाट।।
तनक बिजुरियै हटकि; बाँह बिखरौंही दू:खी जाँहि,
बे न गूँथि हैं सुमन, धूरि सौं मढ़े चीकने केस।।
बरसि पिया के देस।।