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बरसी-बरसी गेलै नैन / कुमार संभव

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कोय नै समझै हमरोॅ आँखी के भाषा
हमरोॅ विहग मन में भरलोॅ छै आशा,
हुनका बिन वसंत खांटी परती लागै
छीनी-छीनी गेलै चैन,
बरसी-बरसी गेलै नैन।

गोड़ोॅ रोॅ पायल खुली-खुली बोलै
छिपलोॅ भेद ज़िया के खोलै,
सतवंती तिरिया रं घूंघट काढ़ी
करी-करी बोलै सैन,
बरसी-बरसी गेलै नैन।

कखनूँ पछिया, कखनूँ पुरबा बहै छै
मार संभार सब ई देहें सहै छै,
लंपट मार हवा रो एैन्होॅ
चाही नै निकलै बैन,
बरसी-बरसी गेलै नैन।

वसंत वाण से छै तन मन बिंधलोॅ
काम कमान पर छै हर पल तनलोॅ,
अंतिम आस वसंत पर ही छै हमरोॅ
लानतै खोजी वैद्य सुषैण,
बरसी-बरसी गेलै नैन।