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बरसों घिसा पिटा हुआ दरवाज़ा छोड़ कर / मोहम्मद अलवी

बरसों घिसा पिटा हुआ दरवाज़ा छोड़ कर
निकलूँ न क्यूँ मकान की दीवार तोड़ कर.

पानी तो अब मिलेगा नहीं रेग-ज़ार में
मौक़ा है ख़ूब देख लो दामन निचोड़ कर.

अब दोस्तों से कोई शिकायत नहीं रही
दिन भी चला गया मुझे जंगल में छोड़ कर.

तामीर से बुलंद है तख़रीब का मक़ाम
इक से हज़ार हो गया आईना तोड़ कर.

अपने बदन के साथ रहूँ तो अज़ाब है
मर जाऊँगा मैं जाऊँ अगर इस को छोड़ कर.

क्यूँ सर खपा रहे हो मज़ामीं की खोज में
कर लो जदीद शाएरी लफ़्ज़ों को जोड़ कर.