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बरसों बाद / नंद भारद्वाज

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बरसों बाद
किसी बदले हुए मौसम की
कोख से आती गंध
और अंतस की गहराई में
बजती धीमी दस्तक के बुलावों पर
जब भी खोलता हूँ
अपने भीतर के दरवाज़े
खिड़कियाँ रौशनदान -
कोई नहीं होता वहाँ
             उत्सुक
   अपने ही पीड़ित सन्नाटों के सिवाय,

जाने कब से खड़ा हूँ
एक गुज़रती हुई उम्र के किनारे
उस अन्तहीन अंधेरे की
            गिरफ़्त में ग़ुमसुम !
बरसों बाद
किन्हीं अधूरे पड़े सपनों की
बिखरी चिन्दियों के बीच
इस बेचैन सितारों से भरी रात के
गूंगे आसमान से उतर कर
कभी तो आओगे मेरी मुक्ति के उल्लास -
समेट लूंगा मैं
तुम्हें अपने बिखरे हुए संसार में !

लौट आएगी
मुझ में जीने की नई चाह

खुल जाएंगे
इस एकान्त कारा के
बंद दरवाज़े
ये वातायन नीला आकाश
हलके में दूर तक गूँजेगी
अबोले अलगोजों की तान
             उस पार तक !