भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बरस भाईड़ा बरस / मनोज चारण 'कुमार'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बरस बरस तूँ बरस भाईड़ा,
जे नहीं बरसैला,
तो म्हारा करसा तरसैला।

सूनी-सूनी धरती है, खेत पड्या परती है,
कोठ्या माँही बीज पड्या, बीजीया खूंटया पै धरया,
रास-पुराणी बता म्हारी कद ताई हरसैला,
म्हारा करसा तरसैला।

गैरी-गैरी सांस लियाँ, मन मांही आस लियाँ,
हाथा मांही फांस लिया, पेटा मैं लपांस लिया,
सुनी-सुनी आंख्या सै, आकासां नै निरखैला,
म्हारा करसा तरसैला।

ऊँट भैंस पाडी झौटी, पाडक्यां अ नानी मोटी,
बाछड़यां आ छोटी-छोटी, भेड-बकरया मोटी-मोटी,
हरै घास नै कान्हा थारी गायाँ तरसैला,
 बता तूँ कद ताई बरसैला।

बैसाख अर जेठ गयो, आधो ओ अषाढ़ गयो,
ओजूँ ताई छांट कोनी, कैणे मैं की आंट कोनी,
अरै रामजी बता कणा ताई इंदर गरजैला,
म्हारा करसा तरसैला।

उतरते आषाढ़ मांही, काळी-पीळी घटा छाई,
दिखणादी बादळती आई, तोड़ दिया धोरा ताई,
सावण रा हिलोर उठे गैडम्बर गाजैला,
तो म्हारा करसा नाचैला।

खेतां माहीं लावणी है, हरी-भरी सावणी है,
धरती मनभावणी है, जाणै पैरी ओढ़ी कामणी है,
मुळकी जद संताना तो आ धरती मुळकैला,
म्हारा करसा हरसैला।

बरस बरस तूँ बरस भाईड़ा,
जे ज़ोर स्युं बरसैला,
तो म्हारा करसा हरसैला।।