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बर्तन और किताबें / औरत होने की सज़ा / महेश सन्तोषी

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सुबह जब मैं घरों में बर्तन माँजती हूँ, तो
बर्तनों में मुझे अपनी किताबों के अक्षर चमकते से
लगते हैं।
दिन में जब मैं स्कूल में किताबें खोलती हूँ तो
मुझे अक्षरों में शाम के बर्तन इकट्ठे-से लगते हैं।
बर्तनों और किताबों में बराबर बँटी रही है जिन्दगी
पहली तारीख से तीस तारीख तक चल तो रही है जिन्दगी।
न हाथ से बर्तन छूटते हैं और न किताबें
अलग-अलग नामों से खुले हुये हैं भूख के खाते
बर्तनों से मिलती हैं
मेरे माँ-बाप को रोटियाँ किताबों में छिपे हैं मेरे लिये
नई सुबह के वादे।
हर रोज इसी तरह चल रहा है
बर्तनों से किताबों तक का सफर
डरती हूँ कहीं ढीली न पड़ जाये
मेरी हथेलियों की पकड़ क्योंकि
मेरी हथेलियाँ ही माँज
रही हैं मेरे लिये एक नई सुबह
मेरी हथेलियाँ ही लायेंगी
मेरे लिये रोशनियों से भरा कोई सूरज नगर।