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बर्फ़ बेअसर / चन्द्रकान्त देवताले
Kavita Kosh से
जिवित लोग
अपनी परछाईं को ढूँढने के लिए
बर्फ़ को आग से पिघला रहे हैं
हँसी पर हँसते हुए
मैं चाकू से आग को हिला रहा हूँ
सोचते हुए
तुम कब तक सूखती रहोगी हवा में ऐसे
कपड़े की तरह
एक मरी हुई तितली चिपकी हुई है
तुम्हारी तड़कती नंगी पीठ पर जिसके रंग
धरती पर टपक रहे हैं
चाकू का फन आग में दहकने के बाद
अब झुलसे हुए पंख की तरह
झरने जा रहा है
और लपटें लड़खड़ाती हुई
धुएँ की गोद में शरणागत हो रही हैं
बुद्ध की प्रतिमा पर रेंगती हुई छिपकली
भाग्यशाली है
- या बर्फ़ में क़ैद मेरी इच्छा
- या बर्फ़ में क़ैद मेरी इच्छा
जो भी हो इस वक़्त
मरे हुए लोग
- बर्फ़-मलाई खा रहे हैं
- बर्फ़-मलाई खा रहे हैं
और तुम
मेरी हँसी पर
आँसुओं के फंदों वाली चुप्पी का
जाल बिछा रही हो...
बर्फ़ पर असर नहीं कर रही है कोई भी चीज़