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बर्लिन की दीवार / 11 / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
पत्थर निर्जीव नहीं है
ये तो नाचते और गाते हैं।
यदि ऐसा न होता
दक्षिण के मंदिरों में बनी
ये पत्थरों की मूर्तियाँ
जीवांत भरत-नाट्यम की
मुद्राएं न होती
और आने वाली पीढ़ियों के लिये
एक साधना का उत्तम
मंच न बनकर रह जाती।
यदि ये पत्थरों की मूर्तियाँ न होती
संस्कृति की यह धरोहर
समय के साथ-साथ संगीत के शोर में
गुम होकर रह जाती
और प्यासी भी रह जाती
आने वाले कल की हर शाम।
तभी तो बर्लिन की दीवार के
ढ़हते टुकड़ों के साथ
देख पा रहे हैं चारों तरफ
नाचते-गाते झुंड लोगों के
हर उम्र के, हर वर्ग के
जैसे सड़कों पर आए हों उमड़
बादल खुशियों के
और ले आए हों संग अपने
लहरें खुशियों की।