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बर्लिन की दीवार / 3 / हरबिन्दर सिंह गिल

और जैसे-जैसे बर्लिन दीवार के
पत्थर टूट-टूट कर गिरने लगे
मुझे ऐसे लगा जैसे अधूरी कविता में
एक बहाव सा आने लगा है।

बहाव अनगनित प्रश्नों का
जो आने वाले कल से जुड़े हैं
और लगा ये टुकड़े पत्थरों के
शायद एक नये संसार की रचना
के प्रयोग में लाए जाऐंगे।
 
एक ऐसा नया घर
जिसमें इस बर्लिन-दीवार का हर टुकड़ा
अपने आप में छोड़ जाएगा एक संदेश
मानव को सोचने के लिये
कि मैं जो पत्थर हूँ, निर्जीव नहीं हूँ
मेरी जिंदगानी में ही निहित है,
आने वाले भविष्य का हर पल।

इतना ही नहीं मानवता का
अधर में लटका कल भी
ऐसे पत्थरों की नींव के अभाव में
आज एक मिट्टी की दीवार से
ज्यादा और कुछ भी नहीं रह गया।

जो कभी भी मानव के कुकर्मों के
एक छोटे से झोंके से ही
गिरकर बिखर सकता है, टूट सकता है
और उसमें दबकर घायल हो जाएगी
या हो सके दम भी तोड़ दे
मेरी माँ मानवता, उस घर के तले
जिसे उसने अपनी
ममता रूपी ईंटों से बनाया था
और आज तक पालती आयी है
उसके स्नेह के साये में हर मानव को।