बर्लिन जू का बाघ / उज्ज्वल भट्टाचार्य
सींखचों के उस पार से
देखते हैं मुझे
बच्चे, बूढ़े, औरतें.
उनके चेहरों पर
कभी मासूमियत झलकती है,
कभी हैरत,
और कभी-कभी यह डर भी :
अगर बीच में ये सींखचे न होते...।
कभी-कभी वे
मेरी तारीफ़ के पुल बान्ध देते हैं,
और हमारे बीच के फ़ासले में
डूब जाता है वो लम्बा क़िस्सा
जो किसी बीहड़ जँगल से शुरू होकर
शहर के बीचोबीच
मुझे इस पिंजरे तक ले आता है ।
यहाँ मुझे आराम से रखा गया है ।
ठहरने-खाने-पीने का बन्दोबस्त है ।
दिल बहलाने के लिए
दिन भर लोग-बाग़ आते रहते हैं ।
मुझे देखकर मुँह बनाते हैं,
जीभ निकालते हैं ।
कभी-कभी
मैं भी उनके बीच होना चाहता हूँ,
काश !
अगर बीच में ये सींखचे न होते ।
हर रोज़ मिलता है गोश्त ।
ताज़ा नहीं,
लेकिन भरपेट ।
यानी कि लोगों को देखते हुए
मुझे भूख तो नहीं सताती,
लेकिन झपटने का मन ज़रूर करता है ।
मुझे औरतें पसन्द हैं
ख़ास तौर पर ।
कहीं ज़्यादा मांस होता है
उनके सीने, जाँघों और नितम्बों पर —
मेरे पुट्ठे तन जाते हैं,
एक लहर दौड़ जाती है खाल के ऊपर,
कहीं किसी के गले से
हल्की सीत्कार सी निकल आती है ।
मेरे पिंजरे के बाहर
एक तख़्ती पर करीने से लिखी गई है
मेरी जन्मपत्री —
कहाँ से मैं आया,
क्या है मेरी ख़ूबी,
कैसा है खानदान ।
कभी-कभी
साथ में अपनी जमात लेकर
चश्मा पहने अधेड़-सा कोई शख़्स आता है
और बताता है उन्हें
मेरे बारे में,
कि उस बीहड़ जंगल में,
जहाँ से मुझे लाया गया,
अब बाघ ख़त्म होते जा रहे हैं ।
जबकि यहाँ
बर्लिन के बीचोबीच
गोरे साहबों की बदौलत
बाघों की तादाद बढ़ रही है ।
इस बाघ से भी कई बच्चे हो चुके हैं ।
बात सही है ।
कभी-कभी
कोई बाघिन भेज दी जाती है
मेरे पिंजरे में ।
वह ऊबती रहती है
और मैं भी ।
लेकिन हमें पता होता है,
जब तक बाघिन गाभिन नहीं हो जाती,
एक-दूसरे से छुटकारा मिलने को नहीं ।
चुनाँचे...
दिन यूँ ही गुज़रते हैं ।
बीहड़ जंगल अब सपने में भी नहीं आता ।
मैं ख़ुश तो नहीं,
मायूस भी नहीं हूँ ।
भले ही हर दिन एक जैसा होता है,
उन्हें अलग तरीके से देखने की कोशिश
बनी हुई है ।
वैसे कभी-कभी
अपने आपसे सवाल करता हूँ :
पिंजरे के बाहर से
अंदर झाँकना कैसा होगा ?
काश !
अगर बीच में ये सींखचे न होते ।