भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बर पीपर के छाँव के जइसन बाबूजी / मनोज भावुक
Kavita Kosh से
बर पीपर के छाँव के जइसन बाबूजी
हमरा भीतर गाँव के जइसन बाबूजी
छूटल गाँव, छिटाइल लावा भुंजा के,
नेह लुटाइल साथी रे एक दूजा के,
शहर-शहर में जिनिगी छिछिआइल, माँकल
बंजारा जिनिगी, धरती धीकल, तातल
पाँव पिराइल मन थाकल रस्ता में जब
मन के भीतर पाँव के जइसन बाबूजी
दुःख में प्रभु के नांव के जइसन बाबूजी!
बर पीपर के छाँव के जइसन बाबूजी
हमरा भीतर गाँव के जइसन बाबूजी