बल या विवेक / रामधारी सिंह "दिनकर"
कहते हैं, दो नौजवान
क्षत्रिय घोड़े दौड़ाते,
ठहरे आकर बादशाह के
पास सलाम बजाते।
कहा कि ‘‘दें सरकार, हमें भी
घी-आटा खाने को,
और एक मौका अपना कुछ
जौहर दिखलाने को।’’
बादशाह ने कहा, ‘‘कौन हो तुम ?
क्या काम तुम्हें दें ?’’
‘‘हम हैं मर्द बहादुर,’’ झुककर
कहा राजपूतों ने।
‘‘इसका कौन प्रमाण ?’’ कहा
ज्यों बादशाह ने हँस के,
घोड़ों को आमने-सामने कर,
वीरों ने कस के–
एँड़ मार दी और खींच
ली म्यानों से तलवार,
और दिया कर एक दूसरे
की गरदन पर वार।
दोनों कटकर ढेर हो गये,
अश्व गये रह खाली,
बादशाह ने चीख मार कर
अपनी आँख छिपा ली !
दोनों कट कर ढेर हो गये,
पूरी हुई कहानी,
लोग कहेंगे, भला हुई
यह भी कोई कुरबानी ?
‘‘हँसी-हँसी में जान गँवा दी,
अच्छा पागलपन है,
ऐसे भी क्या बुद्धिमान कोई
देता गरदन है ?’’
मैं कहता हूँ, बुद्धि भीरु है,
बलि से घबराती है,
मगर, वीरता में गरदन
ऐसे ही दी जाती है।
सिर का मोल किया करते हैं
जहाँ चतुर नर ज्ञानी,
वहाँ नहीं गरदन चढ़ती है।
वहाँ नहीं कुरबानी।
जिसके मस्तक के शासन को
लिया हृदय ने मान,
वह कदर्य भी कर सकता है
क्या कोई बलिदान ?