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बशर अंजान है लेकिन कभी ये चुप नहीं रहता / रविकांत अनमोल

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बशर अंजान है लेकिन कभी ये चुप नहीं रहता
वो सब कुछ जानता है और फिर भी कुछ नहीं कहता

नहीं यूं भी नहीं है इश्क़ का क़ायल नहीं हूं मैं
मगर ये बात मैं उनसे कभी खुलकर नहीं कहता

कहां ए दोस्त ऐसे लोग अब मिलते हैं दुनिया में
नज़र में खोट जिनके हाथ में पत्थर नहीं रहता

दिलों में घर बना लेना नहीं आसान कुछ साहिब
हुनर जिसको ये आ जाए कभी बेघर नहीं रहता

हमारे हुक्मरां अब हुक्मरानों से नहीं दिखते
कि उनके ताज में अब फ़िक्र का गौहर नहीं रहता

तस्‌व्वुर से तुम्हारी याद भी जाती नहीं लेकिन
तुम्हारा ज़िक्र बातों में मिरी अकसर नहीं रहता

ये ऐसा रंग है करता है जो इंसान को कामिल
अधूरा है जो अपनी ज़िन्दगी मे ग़म नहीं सहता

उदासी देख कर उसकी न जाने क्यों ये लगता है
मिरे अंदर कोई इंसां कोई शायर नहीं रहता

कहां अनमोल उसको ढूंडने अब दर-ब-दर जाएं
कोई घर ही नहीं ऐसा जहां दिलबर नहीं रहता