भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बसंती हवा / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
तन को
छूती गुज़री
जो मतवाली युवा हवा
इतनी अच्छी
पहले कभी
न, सचमुच, मुझे लगी !
मन को
ठंडक पहुँचाती गुज़री
जो मदहोश हवा
ऐसी मोहक
पहले कभी
न, सचमुच, मुझे लगी !
बिलकुल अपनी सगी-सगी,
बेहद.... बेहद प्यार पगी,
ठगने आयी थी; स्वयं ठगी !
लिपट-लिपट कर
बाहों - बाहों झूली,
सिहर-सिहर कर
झूमी,
सुधबुध भूली !
वस्त्रों से खेली,
केशों से खेली,
अंग - अंग से खेली !
ईश्वर जाने !
अल्हड़पन में
कितनी मदगंधा ले ली !