भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बसंत का मृत्युगान / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम जाती हो
तो सब साथ ले जाती हो
लौटती हो
तो खाली हाथ आती हो
कहाँ छोड़ आती हो?
किसे सौंपकर?
मेरी आशाएँ,
इच्छाएँ, आमंत्रण,
वो प्यार-भरे पल
कैसे रीत जाता है सब?
तुम्हारे भीतर से
लालायित रहती हो जिसे
बार-बार भरने के लिए
कहाँ से लाऊँ
इतने तारे तोड़कर
टिटिमा सकें
जो तुम्हारी पोशाक पर
कहाँ से लाऊँ चाँद
जगमगा सके जो तुम्हारी माँग में
कहाँ से लाऊँ सूरज
चमक सके जो
तुम्हारे नयनों में किरण बनकर
बार-बार
हर बार
खाली हो गये
महासागर
खाली हो गये महासागर
खाली हो गया आकाश
ये कैसी प्यास है
जो बुझने में नहीं आती
शायद तुम्हारे आने
और जाने के बीच
आकाशगंगाएँ हैं
इसीलिए अंधकारमय ब्रह्माण्ड से
लौटती हो रोशनी के लिए
हर बार
बार-बार
बसंत के मृत्युगान की तरह।