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बसंत के फूल / हरिऔध
Kavita Kosh से
रस टपक है रहा फले फल से।
हैं फबन साथ फब रहीं फलियाँ।
फूल सब फूल फूल उठते हैं।
खिलखिला हैं रही खिली कलियाँ।
पेड़ सब हैं कोंपलों से लस रहे।
है लुनाई बेल, बाँस, बबूल पर।
है लता पर, बेलि पर छाई छटा।
है फबन फैली फलों पर, फूल पर।
तन, नयन, मन सुखी बनाते हैं।
पेड़ के दल हरे हरे हिल कर।
बास से बस बसंत की बैंहर।
फूल की धूल धूल से मिल कर।
रस भरा एक एक पत्ता है।
आज किस का न रस बना सरबस।
फूल से ही न रस बरसता है।
फूल पर भी बरस रहा है रस।
कर दिलों का लहू लहू डूबे।
ए छुरे पूच पालिसी के हैं।
या खिले लाल फूल टेसू के।
या कलेजे छिले किसी के हैं।
आज काँटे बखेर कर जी में।
फूल भी हो गया कटीला है।
चिटकती देखकर गुलाब-कली।
चोट खा चित हुआ चुटीला है।