भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बसंत के बहार / जयराम सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ई बसंत के बहार तूं तनि निहार ले
धरती अइसन तूं भी सोलहो सिंगार ले॥

(1)
आमा के बौर मौर राजा बसंत के,
कुहुक कुहुक कोयलिया बोलावे कंत के,
हावा बांटे फाहा तरह-तरह गंध के,
स्वागत में दुल्हा के भौंरा गुंजार दे।
ई बसंत के बहार तूं तनि निहार ले॥

(2)
दिन में सूरज देहै सोना के नथिया,
रतिया में चांद बुने चांदी के मचिया,
रबिया के मेला में तीसी के नचिया,
देखै ले चल गोरी रूप के संवार ले,
ई बसंत के बहार तूं तनि निहार ले।
धरती अइसन ... सिंगार ले॥

(3)
धरती के देख मने मन बिहुंसऽ हे कविया,
जेसे बिहुंसे किसान गदराते लख रबिया,
अंग अंग भरल कसल मसकल जा हैऽ अंगिया,
घिघिया के अरज करेऽ,
मार से उबार ले।
ई बसंत के बहार तूं तनि निहार ले।
धरती अइसन ... सिंगार ले॥