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बसंत क्या तुम उस ओर जाओगे / शरद कोकास
Kavita Kosh से
बसंत क्या तुम उस ओर जाओगे
जहाँ पेड़ देखते देखते
क्षण दो क्षण में बूढ़े हो गए
देश की हवाओं में घुले
आयातित ज़हर से
बीज कुचले गए
अंकुरित होने से पहले
और जहाँ
वनस्पतियाँ अविश्वसनीय हो गईं
जानवरों के लिए भी
जाओ उस ओर
तुम देखोगे और सोचोगे
पत्तों के झड़ने का
अब कोई मौसम नहीं होता
उगते हुए
नन्हें नन्हें पौधों की
कमज़ोर रगों में
इतनी शक्ति शेष नहीं
कि वे सह सकें झोंका
तुम्हारी मन्द बयार का
पौधों की आनेवाली नस्लें
शायद अब न कर सकें
तुम्हारी अगवानी
पहले की तरह
खिलखिलाते हुए
आश्चर्य मत करना
देखकर वहाँ
निर्लज्ज से खड़े बरगदों को।