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बसंत में बारूद / अनीता अग्रवाल
Kavita Kosh से
बसंत पंचमी आयी
विवाह के लगन चढ़े
आमों पर मंजर फूले
मौसम पर छाई
तरूणाई है
सर्द रात है
पीले बासंती मौसम में
चारों और सन्नाटा
बस गूँज है
बैंड बाजे की
फिल्मी गानों
और
पटाखों की
बगल में कहीं
रोता है कुत्ता
तो बिल्लियाँ कहीं
तापने को अलाव नहीं
पर यहीं कहीं पास में
बारूद भरा है जेहन में
अभी-अभी उठता धुँआ
धुँधलता फिज़ा
बदलता समा
बैंड की तेज धुन के बीच से
ए चीख गूँजती है
सर्द रात बनती
जिंदगी की आखिरी रात
और
अब शुरू होता
मौत का तमाशा
दो खेमों में बाँटती
प्रेमचंद कबीर की धरती
फिराक का शहर था गोरखनाथ की नगरी
काश! हम झांक सकते
अतीत में अपने
लेते संकल्प
बचाए रखने का
गंगा जमननी तहजीब अपनी