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बसंत में / केदारनाथ अग्रवाल

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सिर से पैर तक

फूल-फूल हो गई उसकी देह,

नाचते-नाचते हवा का

बसंती नाच ।


हर्ष का ढिंढोरा

पीटते-पीटते, हरहराते रहे

काल के कगार पर खड़े पेड़ ।


तरंगित,

उफनाती-गाती रही

धूप में धुपाई नदी

काव्यातुर भाव से ।


('पंख और पतवार' नामक काव्य-संग्रह से)