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बसंत मेॅ पलाश खिललौ छै / बिंदु कुमारी

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बसंत मेॅ पलाश खिललोॅ छै
रेलोॅ सेॅ गुजरोॅ, बसोॅ से गुजरोॅ
जीप, कार, रिक्शा, टमटम से गुजरोॅ
पराशै गुदगुदाबै छै सबौं रोॅ मोॅन।
बसंत में पलाश खिललोॅ छै
रौंदी मेॅ चलोॅ, जंगलोॅ मेॅ सुस्तावोॅ।

बांझ लागेॅ लागलै, आबेॅ धरती रोॅ पलाश ,
तभैं तेॅ लागेॅ लागलै आदमी केॅ तराश।
साईकिल के कैरियर पर बैठली
गांव के लड़की रोॅ काजर

ट्रकटरोॅ पर ईटोॅ ढोतेॅ मजूरोॅ के बांसुरी।
देहाती आदमी रोॅ सोन्होॅपन
सब पराशोॅ मेॅ जड़लोॅ छै।
बसंत मेॅ पलाश खिललोॅ छै।
पलाश टहकै छै, सुरजोॅ जुंगा
बसंत मेॅ संरङग नहैलोॅ छै।
पत्थर, गाछ आरो पलाश के मनोॅ मेॅ
भोली-भाली गोरैया रोॅ तन पोसैलोॅ छै।
बसंत में पलाश खिललोॅ छै।
संताल परगना के गांवोॅ रोॅ भोर
कामोॅ के द्वार खोलै छै
संताल परगना मेॅ पलाश वोॅन लुभैतौं
सब्भै केॅ देखलैतों रास्ता
कि? केना मरलोॅ मांटी मेॅ सिरजलोॅ जाय छै-
सुगन्ध! लहर!! आरो प्राण!!!
तोरानी आबोॅ संताल परगना
यहाँ आभियोॅ स्नेह फूल झड़ै छै
प्रेम! प्यार!! आरो मुहब्बत!!!
सबरोॅ दिलोॅ मेॅ बसै छै।
संताल परगना मेॅ पलाश खिलै छै