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बसंत / कर्मानंद आर्य

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ओ मेरी चन्द्रवर्णी प्रियतमा
बसंत आ गया है
सरसों पियरा गई है
तुम्हें मटर काटने जाना है

पिछले कई सालों से
तुम्हारे जूड़े और खेत से जूझते हुए
तुम्हारी चोटी नहीं संवार पाया

हम किसान ऐसे मनाते हैं बसंत
मिलजुल बोते हैं
रखवाली में जागते हैं सारी सारी रात

बसंत भी तो यही करता है
फुरसत के पलों में
देह से लिपटकर
काट लेता है एक फसल

ओ मेरी चन्द्रवर्णी प्रियतमा
इस बार हम दोनों की सावधानी से
उगेंगी अच्छी फसलें