बसंत / केशव
मुझे नहीं मालूम था
कि आयेगा बसंत
उसी रंग
उसी गंध में
सराबोर
उम्र के नाख़ून को
बींध
धर देगा
पोर-पोर पर
अपनी थिरकती उँगलियाँ
और समूचा जीवन
बसंत—राग बन जायेगा
और कूँएं से दूर
लगातार दूर होती प्यास में
खिला देगा
एक सुलगता हुआ जंगल
चुपके से आकर
कुछ इस कदर
धर गये बसंत को तुम
मौसमे की बंजर हथेलियों पर
कि हर पीले पत्ते से
लिपट गई आँच सी
कि फूट पड़ा
रंगहीन साँझ की कोख़ से
रंगों का एक झरना
मौसम की उँगली थाम
पगडंडी-पगडंडी
जंगल-जंगल
इकट्ठा करती फिरती है उम्र
अपनी गोद में
रंग-बिरंगे फूल
और अपने लिबास के
छिद्रों में टाँककर
खिलखिलाती है
घाटियों में
आँख-मिचौनी खेलते
शिशु-सूरज की तरह
सच
तुमने यह क्या किया
कि बढ़ते हुए रेगिस्तान को
अपनी नदी-बाहों में घेर लिया