बसंत / जितेंद्र मोहन पंत
फूली सरसों ने बासंती चादर फैलाई,
सूखी धरती पर फिर से हरियाली छायी।
गेंहूॅं की बलियों में यौवन रंगत आई,
खिलते बुरांश से वन की आभा मन को भायी।
आओ हम भी इस मौसम से रंग उधार लें,
बहुरंगी रंगों से अपना जीवन निखार लें।
नभचर ने लो शुरू कर दिया कलरव गान,
छेड़ रही है पुरवैया सन सन करती मधुर तान।
बौराये आमों से कोयल बांट रही है शांति ज्ञान,
मोरों के नव—पर भर आए, बढ़ा रहे सौंदर्य शान।
आओ हम भी संगीत को अपने उर में भर दें
रूखेपन को त्याग सुदर्शन खुद को कर दें।
सूखे पत्तों को त्याग हरित अब हर डाली है,
बहुरंगी पुष्पों से भरी हुई धरती थाली है।
पुष्पों पर अली गुंजन से हर्षित माली है,
प्रकृति के मुख पर छायी यौवन लाली है।
आओ हम भी नव किसलयित हो जाएं,
खिलते सुमनों की तरह हर पल मुस्काएं।
सर्दी की सिहरन से तन को मुक्ति मिली है,
देखो! कैसी सौंधी—सौंधी सी धूप खिली है।
तन मन को भाता मौसम सम शीतोष्ण बना है,
ना गर्मी, ना सर्दी ताप मनभावक बना है।
आओ हम भी इस मौसम से 'समता' सीखें,
धैर्य धरें, सुख—दुख में अविचलित रहना सीखें।